काम निमटा के हम तो सो गए हैं ...
जिस्म बचा है जाने भर का ...
जाऊँ फिर उस को मनाने के लिए ...
जश्न तुझे ठुकरा कर होगा ...
जब साहिल का धोका साहिल हो जाता है ...
जब निकले राय-शुमारी को ...
जब मुझे काम का बताया गया ...
जब कभी ज़ख़्म शनासाई के भर जाते हैं ...
जाने सूली पे हम चढ़ाए गए ...
जाने किन बे-वफ़ाओं का चर्चा किया ...
इतना तन्हाई से घबराने लगे हैं ...
इतना हम घबरा गए ख़ुद से ...
इतना अपना हो जाता हूँ ...
'इश्क़ पहली मिरी बुराई थी ...
'इश्क़ को जितना भी समझा हम ने ...
हुश्यारी का मोल चुकाता रहता हूँ ...
हुक़ूक़ जब याद आए अपने ...
हवस में मुब्तला हम को मिला था ...
हरीफ़ मुझ सा अगर हो तो कुछ ख़सारा नहीं ...
हक़ीक़त खुल नहीं पाई अभी तक ...