है अब वो भी दस्त-ए-ख़रीदार में ...
घरों में छुप के न बैठो कि रुत सुहानी है ...
फ़सुर्दा कर गया अगले ज़मानों से गुज़रना ...
फ़र्क़ तो पड़ना था यारी में ...
फ़रेब-ए-आगही में जान दे दी ...
एक ऐसा भी वक़्त आता है ...
दिल में कुछ हो तो मुस्कुराइएगा ...
दफ़्तर में बेकार की बातें करते रहिए ...
चुप हैं सब मौत के सवाल के बा'द ...
छूट रहा है घर जैसा कुछ ...
चाँद कल ऐसा लगा तारों के बीच ...
बिछड़ कर हम उसी के हक़ में अच्छा कर रहे थे ...
बीच-बचाव करने बाहर जाया जाए ...
बस्ती बुरी नहीं ये हमारे क़यास में ...
बराबर जिस्म को धमका रही है ...
बात रखने का मौक़ा' दिया जाएगा ...
बात करते थे और पत्थर थे ...
अस्ल सूरत छुपाने वाले बुरे ...
ऐसा करते हैं सुब्ह टालते हैं ...
अच्छी-अच्छी बातें दुनिया-दारी वाली ...